Friday 11 September 2015

नदी

ज़िंदगी बस चलती जा रही है,
और, मैं भी
वक़्त रुकता नहीं,और वक़्त के साथ
मैं चल पाती नहीं,
वक़्त के इस बहाव में, बस
बहती जा रही हूँ।
न रास्ते में कोई पत्थर है, जिससे
टकराकर कुछ गति मिले,
कुछ विराम मिले,
न ही दरख़्तों से गिरे हुए पत्ते
जो बह लें मेरे साथ,
कहीं किसी दूरी तक
रुकना सीखा नहीं, इसलिए ही
बस बहती जा रही हूँ, इंतज़ार है
सागर में मिल जाने का,
मिलकर सागर में, अपना अस्तित्व 
ख़त्म कर लेने का।